‘शिवोहम्’
आंखों की नमी से गूंदती है
जिन्दगी का आटा
थपकियां दे देकर चकले की धार पर
गोल-गोल घूमती है
रिश्तों की आंच पर रोटी के साथ-साथ
सिंकती है खुद भी
उनके लिए
बड़के और छुटकी के लिए।
सीमित समय और साधन के बावजूद
तराशती है सब्जियों के फांक
मछली-सी छलमलाती हैं उंगलियां
जब पानी में धुलती हैं सब्जियां।
खट्टे-मीठे अनुभवों में लथपथाई
छन्न भर कहती है कड़ाही
फिर बेआवाज़ पकती है
जी-भर सुलगती है।
बिखर आई लट संवार
खुद को साधती है
बालों को समेटकर
सहस्त्रार पर बांधती है।
तब कोई धवल बाल
शीर्ष पर चमकता है
अधखिले चंद्र-सा,
गाती है गीत कोई
शुभकामना मंत्र-सा!
चू पड़ती है
पसीने की नमकीन धार
जटाओं के पार
मंद-मंद मुस्काती है
हँसकर पी जाती है
जीवन का गरल
जैसे गंगाजल!
राग-बैराग के साथ निपटाती है
पहली शिफ्ट
और दौड़ पड़ती है दफ़्तर की तरफ
दूसरी शिफ्ट निभाने के लिए
विष कन्या से
शिव कन्या हो जाने के लिए!
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Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, International Women Day, Literature, Mahashivratri, Shivratri
FIRST PUBLISHED : March 8, 2024, 12:39 IST
